दुर्योंधन का आत्ममंथन
सूर्य अस्ताचालवस्था
में है... कुरुक्षेत्र का यह रणक्षेत्र। .
मन और तन की यंत्रणा
से पीड़ित मृत्यु को बुला रहा ,
सहस्त्रों और सदियों
से निंदा और घृणा रहा शिकार मै,
पिता जन्मांध वहीं माता
गांधारी ने अंधेपन को लिया स्वीकार।।
तुम तो ऐसे नहीं हो
,फिर क्यूँ तुमने मुँह फेर हमें अंधकार में बढ़ने दिया।
यदि बालपन से ही रहते
साथ हमारे तुम ,गलतियों पर देते फटकार ,
तब हम सब भी कुमार्ग
पर न चले होते ,न होता कोई अभिचार।
तुम्हारा मुख मोड़ना...ही बन गया है सारे ब्यभिचारों का आधार।।
भीष्म पितामह के आदर्श
और तप भी हो गए थे क्यूँ मौन ?
जब कर रहा था भरी सभा में मैं अपने ही कुलबधू का चिर हरण ,
उस बुद्धिजीवियों से भरे सभा में ,ना ही किसी ने कड़ा विरोध किया।
काश ! ऐसा न हो सका
... ,जिसका फल है कुरुक्षेत्र आज अपनों से कराह रहा।।
गुरु द्रोण ने पुत्रशोक
में मध्य रणक्षेत्र क्यों हथियार को फ़ेंक दिया।
किस स्वार्थ ने एकलब्य
का अंगूठा काट एक सैनिक का बल छीन लिया ,
केवल क्या शक्ति की लालसा
मेरे पास ही थी जो दुराशक्ति को ओढ़ लिया।
कर्ण ,द्रोण और पितामह
की बुद्धि को क्या तुमने ही हर लिया था ?
मैं बड़ा थोड़ा अभिमानी
द्रौपदी के माखौल को न सह सका,पर...
युधिष्ठिर के जुवे के
लत को तुम भी तो न रोक पाए।
लेकिन... हे कृष्ण...
मेरा मन आज कराह रहा है कि ,
अंधेपन ने अँधेरे का
विस्तार किया ,
तू दूरदृष्टि से भी इस
रणक्षेत्र में अपनों के ही वार को न रोक सके।
परिणति यही है तुम जिधर
हो जीत उसी की होनी है ,
पांडवों का त्याग और
तीब्र बुद्धि ने तुमको हमसे छीन लिया...
याद रखेगा जग सारा की
दुर्बुद्धि का त्याग, जहाँ अँधेरा न रह पायेगा।।
(लेखक : श्री सुब्रतो
बनर्जी )
(अनुवादक : सुधा पाण्डेय
)
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