शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

शिक्षक और शिक्षकीय भाव

शिक्षक और शिक्षकीय भाव ही अपने आप मे सन्तुष्टीपूरक होता है इसके आगे सब नगन्य है । इसकी विशुद्धता  कभी मापी नही जा सकती लेकिन अपने आप मे इन के दिए गये ज्ञानप्रकाश से अपनेआप को तो  प्रकाशग्राही होते ही हैं साथ-साथ चतुर्दिक-वातावरण भी प्रकाशवान होता है । शिक्षक के लिये जरुरी नही कि वह विद्या देने वाला ही हो ,कहने का तात्पर्य यही है कि उपाधियों को दिलाने वाला शिक्षक  कही न कही अपने व्यव्साय के सन्निकट होने के कारण अभिन्न नही हो पाता है जो एक कटु-सत्य है , उसके बावज़ूद शिक्षकीय-भाव भी परयाप्त होता है किसी भी शिक्षार्थी के लिये । शिक्षक हो या शिक्षार्थी भाव के साथ-साथ व्याव्हारिक-तथ्यो को आत्मसात् करते हुए पथप्रदर्शक बना जा सकता है ।सन्वेदनशीलता को सर्वदा स्मरणीय मान इसे जिलाये रखो, क्यूँकि सन्वेदनशीलता जहाँ तुम्हे सह्ज-सरल और सर्जनात्मकता का पथ अवगत कराती है वही शिक्षक ज्ञान देकर तथ्यो को प्रतिस्थापित करने की कला मे हम सबको पारन्गत बनाता है । आज सही मायने में देखा जाये तो तकनीकि-शिक्षा ने ही हमे नये गुरु से भी मिलवाया है वो हैं हम सबका 'गुगल-गुरु' । आपने कभी मह्सुस किया है कि जब भी हम अपने शिक्षक से प्रभावित होते हैं तो प्रतिक्रिया में हमारे अन्दर भी एक उर्जा प्रभावित होती है जो हमे कुछ कर गुजरने के लिये अभिप्रेरित करती है अतः शिक्षकों के अन्दर भी वही प्रतिक्रिया उन्हें भी अपने शिक्षार्थियो को देखकर अपनेआप उन्हें प्रेरित करती है कक्षा में अपना उत्तम देने के लिये । मेरे कहने का भाव यही है कि उत्तम पाने के लिये सन्युक्त प्रयास ही हमे सर्वोत्तम से साक्षात्कार करवाता ्है । ऐसा भाव ही विकास और उत्तम प्रशासनों और प्रशासनिक व्यवस्थाओं (शिक्षण-सस्थाओ) मे समाहित हो तो उसके पथ पर आने वाले सभी अवरोधों में  अपनेआप सुधारने वाली प्रतिक्रियात्मकता समाहित हो जाती है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें