प्रेमचंद एक ऐसा नाम जिसे साहित्य का मसीहा कहा जाये तो साहित्य के साथ उपयुक्तता होगी ,क्यूँकि इन्होंने साहित्य को परिभाषित करने के लिए मौलिक अंदाज को जरिया बनाते हुए साहित्य को सत्य और यथार्थ से जोड़ा है | साहित्य को आलोचनात्मकता के साथ जीवन के यथार्थता का जीवंत व्याख्यान माना है | कभी- कभी ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचंद पूर्ववर्ती साहित्यकारों (अठारहवी और उन्नीसवीं सदी के मध्य साहित्य श्रृंगार-प्रधान था)की तरह साहित्य को केवल उपदेशात्मक और मनोरंजन के पक्ष में नहीं थे | संभवतः यही कारण है कि उनके उपन्यासों और कहानियों में जीवनपथ और सामाजिकता को केंद्रबिन्दु बनाया गया है | उन्होंने साहित्य को नीतिशास्त्रीय सांचे के तहत ढाला है जिसमें तार्किकता के तहत मनुष्यों को प्रभावित करते हुए आत्मसात कराती है |
'प्रेमचंद कुछ विचार' नामक ग्रन्थ में लिखा है ," जो दलित है,वंचित है -चाहें वह व्यक्ति हो या समूह -उसकी हिमायत व वकालत करना उसका फर्ज है | उसकी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है और उसकी न्यायवृत्ति तथा सौन्दर्यवृत्ति को जाग्रत करके अपना यत्न समझता है |"
ये पक्तियाँ सत्य और यथार्थवादी कि ओर जाती हुई प्रतीत होती हैं | उन्होंने आगे फिर कहा है ,"अपनी सहज सहानभूति और सौंदर्यप्रेम के कारण वह जीवन के उन सूक्ष्म स्थानों तक जा पहूँचता है जहाँ मनुष्य अपनी मनुष्यता के कारण पहूँचने में असमर्थ होता है |"
अपने एक निबंध 'जीवन में साहित्य का स्थान' में वे भौतिक व्स्तु से मिलाने वाले आनन्द को साहित्य से मिलने वाले आनन्द से हेय मानते हैं | वे कहते हैं ".....सुन्दर से आनन्द प्राप्त होता है, वह अखंड है , अमर है .....|"
उन्होंने सद्वृत्ति को बढ़ने के लिए साहित्य को एक उत्तम स्रोत माना है | उन्होंने माना है कि साहित्यिकता से ओतप्रोत व्यक्ति कभी नैराश्यपूर्णता का जामा नहीं ओढ़ सकता है | साहित्य को सच्चा-इतिहास भी माना है और संघर्ष के साथ-साथ उदारता और त्याग का भारतीय-साहित्य में पनपना मुख्य आधार माना है | उनहोंने नकारात्मकता से दूर रहते हुए कल-विवरण में कलिमाओं के विवरण से परहेज करने को उचित माना है | कहने का तात्पर्य है कि साहित्य का मतलब होता है जिससे पढ़कर नैराश्यता से दूर और सकारात्मकता से पाठक ओतप्रोत हो जाने को मुख्य माना है |
यही कारण है कि उन्होंने साहित्यकारों से बहुज्ञता कि जागृती को अपनाने और मानसिकताओं में उसके संचार को उचित ठहराने के लिए प्रेरित किया है | इसप्रकार उन्होंने सृजनात्मकता को बढ़ावा देना और कर्मठता के लिए प्रेरणादायी बनना अपने साहित्यिक-गतिविधियों में सजाकर संप्रेषित किया है | उनहोंने लिखा है ,"फूलों को देखकर हमें इसलिए आनन्द होता है कि उनसे फलों की आशा होती है ,प्रकृति से अपने जीवन का सूर मिलाकर जीने से हमें इसलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विक्सित और पुष्ट होता है | आनन्द स्वतः उप्योगितायुक्त वस्तु है |" उन्होंने साहित्य को हवा से तुलना करते हुए शीतल माना है | उनहोंने साहित्यकार कि श्रेष्ठता कि कसौटी का निर्धारण करते हुए साहित्यकारों को प्रोपैगंडा से बचने को कहा है | भावात्मकता के साथ-साथ सौन्दर्यीकरण के समावेश को साहित्य का उत्कृष्ट जामा माना है | इसप्रकार उनके साहित्यिक भावों को किसी नियमों से भले ही न बांधा जा सके लेकिन इन भावों के समावेश से साहित्य कि उत्कृष्टता को अवश्य ग्राह्य किया जा सकता है | सही मायने में उन्होंनें साहित्यिक-गतिविधियों को नजरअंदाज न करते हुए उसे समाज और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए मसाल माना है |
(स्रोत का आधार :-"प्रेमचंद कुछ विचार")
'प्रेमचंद कुछ विचार' नामक ग्रन्थ में लिखा है ," जो दलित है,वंचित है -चाहें वह व्यक्ति हो या समूह -उसकी हिमायत व वकालत करना उसका फर्ज है | उसकी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है और उसकी न्यायवृत्ति तथा सौन्दर्यवृत्ति को जाग्रत करके अपना यत्न समझता है |"
ये पक्तियाँ सत्य और यथार्थवादी कि ओर जाती हुई प्रतीत होती हैं | उन्होंने आगे फिर कहा है ,"अपनी सहज सहानभूति और सौंदर्यप्रेम के कारण वह जीवन के उन सूक्ष्म स्थानों तक जा पहूँचता है जहाँ मनुष्य अपनी मनुष्यता के कारण पहूँचने में असमर्थ होता है |"
अपने एक निबंध 'जीवन में साहित्य का स्थान' में वे भौतिक व्स्तु से मिलाने वाले आनन्द को साहित्य से मिलने वाले आनन्द से हेय मानते हैं | वे कहते हैं ".....सुन्दर से आनन्द प्राप्त होता है, वह अखंड है , अमर है .....|"
उन्होंने सद्वृत्ति को बढ़ने के लिए साहित्य को एक उत्तम स्रोत माना है | उन्होंने माना है कि साहित्यिकता से ओतप्रोत व्यक्ति कभी नैराश्यपूर्णता का जामा नहीं ओढ़ सकता है | साहित्य को सच्चा-इतिहास भी माना है और संघर्ष के साथ-साथ उदारता और त्याग का भारतीय-साहित्य में पनपना मुख्य आधार माना है | उनहोंने नकारात्मकता से दूर रहते हुए कल-विवरण में कलिमाओं के विवरण से परहेज करने को उचित माना है | कहने का तात्पर्य है कि साहित्य का मतलब होता है जिससे पढ़कर नैराश्यता से दूर और सकारात्मकता से पाठक ओतप्रोत हो जाने को मुख्य माना है |
यही कारण है कि उन्होंने साहित्यकारों से बहुज्ञता कि जागृती को अपनाने और मानसिकताओं में उसके संचार को उचित ठहराने के लिए प्रेरित किया है | इसप्रकार उन्होंने सृजनात्मकता को बढ़ावा देना और कर्मठता के लिए प्रेरणादायी बनना अपने साहित्यिक-गतिविधियों में सजाकर संप्रेषित किया है | उनहोंने लिखा है ,"फूलों को देखकर हमें इसलिए आनन्द होता है कि उनसे फलों की आशा होती है ,प्रकृति से अपने जीवन का सूर मिलाकर जीने से हमें इसलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विक्सित और पुष्ट होता है | आनन्द स्वतः उप्योगितायुक्त वस्तु है |" उन्होंने साहित्य को हवा से तुलना करते हुए शीतल माना है | उनहोंने साहित्यकार कि श्रेष्ठता कि कसौटी का निर्धारण करते हुए साहित्यकारों को प्रोपैगंडा से बचने को कहा है | भावात्मकता के साथ-साथ सौन्दर्यीकरण के समावेश को साहित्य का उत्कृष्ट जामा माना है | इसप्रकार उनके साहित्यिक भावों को किसी नियमों से भले ही न बांधा जा सके लेकिन इन भावों के समावेश से साहित्य कि उत्कृष्टता को अवश्य ग्राह्य किया जा सकता है | सही मायने में उन्होंनें साहित्यिक-गतिविधियों को नजरअंदाज न करते हुए उसे समाज और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए मसाल माना है |
(स्रोत का आधार :-"प्रेमचंद कुछ विचार")
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