"रागदरबारी" श्रीलालशुक्ल जी द्वारा रचित उत्तम कोटि की व्यंगात्मकता के एक नये स्वरूप को पाठक के समक्ष रखता है | अपने इस उपन्यास में उन्होंने स्वीकार किया है कि "व्यंग्य सत्य कि खोज नहीं ,झूठ की खोज है |यही उसका पेचदार रास्ता है |झूठ की खोज के सहारे या उसके बहाने ही यहाँ सत्य को पहचानने की प्रक्रिया चलती है |"
सामाजिकता में व्याप्त विषमताओं और प्रतिस्थापित विकृतियों कि गहराती हुयी निर्ममता और आक्रामकता का व्यंगात्मक परिणाम ध्वंसात्मक ही होगा जबकि विकासशील समाज में स्थापित प्रगतिशीलता और उसके स्वस्थ्य जीवन-मूल्यों कि प्रतिष्ठा का वातावरणीय-व्यंग्यात्मक भाव की स्वाभाविकता अवश्य सकारात्मक और क्रियाशीलता का जामा ओढ़े हुए होगी |
इस दृष्टिकोण से श्रीलालजी के सामने भारत कि स्वातंत्र्योत्तर राजनीतिक और सामाजिक पृष्टभूमि मुख्य आकर्षण का रहा जिस केंद्रबिंदु में परिलक्षित वास्तविकताओं को बेनकाब करना उनका अपने इस उपन्यास में व्यंग्य का आधार बना व्यंगात्मक-सृजनशीलता को प्रतिस्थापित करते हुए उन्होंने अपने शब्दों द्वारा चौतरफा बाण छोड़े जिसमें स्वतंत्रता के निहितार्थ लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं को बेनकाब करते हुए लोकतंत्र को झूठतंत्र ही नहीं वरन लूटतंत्र में परिवर्तित करने वाले कारनामों के तहत शिवपाल गंज के साथ-साथ उसके अधिम्नाय्क वैद्य जी को दर्शाया है ,जिन्होंने अपना दबदबा पंचायत-व्यवस्था ,कालेज -प्रबंधन ,कोआपरेटिव-यूनियन के साथ-साथ थाना-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था पर भी बना रखा है | इस निरंकुशता में छटपटाता यथार्थ भयावहता और विद्रूपताओं भरे अनुभवों से गुजरता है |
रागदरबारी का व्यंग्यात्मक-पुट तुलनतमक-प्रतिद्वंदिता के तहत देखा जाये तो यहाँ संगत-विसंगत न होकर केवल विसंगतियों के अंतर में निहित है |वैद्य जी को भीखमखेड़वी,छोटे-पहलवान का बद्री पहलवान और प्रिंसिपल के साथ खन्ना मास्टर को केंद्रबिंदु बना उपन्यासकार ने दो थानेदारों,दो डाकूओं ,दो पियक्कड़ों और दो आशिकमिजाजों (बद्री और रुप्पन)के तहत प्रतिद्वंदिता को दर्शाते हुए व्यंगात्मक लक्ष्य को साधा है जिसमें इनकी विसंगतियों इन्हें एक जगह प्रतिरूपित करती हैं |
व्यवस्थातंत्र तथा सरकारी कार्यों पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते हुए लेखक कहता है , "शिक्षा-सुधार हो या मलेरिया- उन्मूलन अथवा खेती उगाने के नवीन तरीके कार्यकर्त्ता मानकर चलते हैं कि भाषण और विज्ञापन से सब हो जायेगा |" जनतंत्र हो न्यायतंत्र या फिर चुनाव-पद्धति पर तो लेखक ने करारा व्यंगात्मक प्रहार किया ही है साथ में वस्तुस्थितियों का मनोभाव का हास्यपूर्ण व्यंग्यात्मक की झड़ी लगाते हुए 'रागदरबारी',के प्रारंभ में ही सड़क पर खड़े ट्रकों के आवरणों पर अपनी भावभंगिमा को शब्दांकित करते हुए कह उठते हैं ,"उसे देखते ही यकीन हो जाता था,इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है |" यही नहीं खस्ताहाल दूकानों यथार्थता को दर्शाते हुए उनकी मिठाइयों के बारे में व्यंग्यात्मकफुहार करते हुए कहते हैं,....."जो दिन-रात मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं वे हमारे देशी कारीगरों के हस्त-कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देतीं थीं वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो ,पर कूड़े कि स्वादिस्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने कि तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है |" यही नहीं वैद्य जी और बद्री से डांट खाए रुप्पन कि मनःस्थिति को मूर्तताप्रदान करते हुए उपन्यासकार के ब्यंग्य-भाव भरे शब्द इस प्रकार है,"सभी मशीनें बिगड़ी पड़ी हैं | सब जगह कोई-न-कोई गड़बड़ी है |सड़कों पर सिर्फ कुत्ते ,बिल्लियाँ और सूअर घुमते हैं | हवा सिर्फ धुल उड़ाने के लिए चलती हैं |आसमान का कोई रंग नहीं , नीलापन उसका फरेब है | बेवकूफ लोग बेवकूफ बनाने के लिए बेवकूफों कि मदद से बेवकूफों के खिलाफ बेवकूफी करते हैं |घबराने की ,जल्दबाजी में आत्महत्या करने की जरुरत नहीं...|"
रुप्पन के गुप्त साहित्य पर अपने भाव को रखते हुए उपन्यासकार के व्यंगात्मक भाव देखते ही बनता है जिसमें कटाक्ष के साथ-साथ समीक्षात्मक विवरण भी है ,"बहुत सी दफ्तरी बातों तरह गुप्त रहकर भी वह गुप्त नहीं रहता| विशिष्ट और जन-साहित्य की बनावटी श्रेणियों का अतिक्रमण कर वह सबके हृदयों में समान रूप से प्रतिष्ठित है | सुमित्रानंदन पंत की दार्शनिक भाषा में कहा जाए , तो 'मानव और मानव के चिरंतन 'संबंधों का ही वर्णन होता है |"
लेखक कि श्रमशीलता और तल्लीनता के कारण हुए बदलाव को शब्दों में लिखते हुए उपन्यासकार ने कहा है "किताब लिखना दिमाग के लिए कठोर और शरीर के लिए कष्टप्रद कार्य है |"
"रागदरबारी" उपन्यास में श्रीलालजी शुक्ल नें उस समय के सामाजिकता को दर्शाया है जिसमें कभी-कभार उनका आक्रोश भी कटाक्ष व्यंग्य के रूप में पाठक के सामने प्रतीत होता है ,इसमें साहित्यिकता से ज्यादा जीवन को कभी मनोरंजनात्मकता के तहत उकेरने कि कोशिश की गयी है तो कभी तीखापन का समावेश के साथ निरंकुशता पर आक्षेप को उकेरा गया है |
संदर्भ ग्रंथ:
रागदरबारी, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (एम्.एच.दी.-१५ ;हिंदी उपन्यास -२)
सामाजिकता में व्याप्त विषमताओं और प्रतिस्थापित विकृतियों कि गहराती हुयी निर्ममता और आक्रामकता का व्यंगात्मक परिणाम ध्वंसात्मक ही होगा जबकि विकासशील समाज में स्थापित प्रगतिशीलता और उसके स्वस्थ्य जीवन-मूल्यों कि प्रतिष्ठा का वातावरणीय-व्यंग्यात्मक भाव की स्वाभाविकता अवश्य सकारात्मक और क्रियाशीलता का जामा ओढ़े हुए होगी |
इस दृष्टिकोण से श्रीलालजी के सामने भारत कि स्वातंत्र्योत्तर राजनीतिक और सामाजिक पृष्टभूमि मुख्य आकर्षण का रहा जिस केंद्रबिंदु में परिलक्षित वास्तविकताओं को बेनकाब करना उनका अपने इस उपन्यास में व्यंग्य का आधार बना व्यंगात्मक-सृजनशीलता को प्रतिस्थापित करते हुए उन्होंने अपने शब्दों द्वारा चौतरफा बाण छोड़े जिसमें स्वतंत्रता के निहितार्थ लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं को बेनकाब करते हुए लोकतंत्र को झूठतंत्र ही नहीं वरन लूटतंत्र में परिवर्तित करने वाले कारनामों के तहत शिवपाल गंज के साथ-साथ उसके अधिम्नाय्क वैद्य जी को दर्शाया है ,जिन्होंने अपना दबदबा पंचायत-व्यवस्था ,कालेज -प्रबंधन ,कोआपरेटिव-यूनियन के साथ-साथ थाना-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था पर भी बना रखा है | इस निरंकुशता में छटपटाता यथार्थ भयावहता और विद्रूपताओं भरे अनुभवों से गुजरता है |
रागदरबारी का व्यंग्यात्मक-पुट तुलनतमक-प्रतिद्वंदिता के तहत देखा जाये तो यहाँ संगत-विसंगत न होकर केवल विसंगतियों के अंतर में निहित है |वैद्य जी को भीखमखेड़वी,छोटे-पहलवान का बद्री पहलवान और प्रिंसिपल के साथ खन्ना मास्टर को केंद्रबिंदु बना उपन्यासकार ने दो थानेदारों,दो डाकूओं ,दो पियक्कड़ों और दो आशिकमिजाजों (बद्री और रुप्पन)के तहत प्रतिद्वंदिता को दर्शाते हुए व्यंगात्मक लक्ष्य को साधा है जिसमें इनकी विसंगतियों इन्हें एक जगह प्रतिरूपित करती हैं |
व्यवस्थातंत्र तथा सरकारी कार्यों पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते हुए लेखक कहता है , "शिक्षा-सुधार हो या मलेरिया- उन्मूलन अथवा खेती उगाने के नवीन तरीके कार्यकर्त्ता मानकर चलते हैं कि भाषण और विज्ञापन से सब हो जायेगा |" जनतंत्र हो न्यायतंत्र या फिर चुनाव-पद्धति पर तो लेखक ने करारा व्यंगात्मक प्रहार किया ही है साथ में वस्तुस्थितियों का मनोभाव का हास्यपूर्ण व्यंग्यात्मक की झड़ी लगाते हुए 'रागदरबारी',के प्रारंभ में ही सड़क पर खड़े ट्रकों के आवरणों पर अपनी भावभंगिमा को शब्दांकित करते हुए कह उठते हैं ,"उसे देखते ही यकीन हो जाता था,इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है |" यही नहीं खस्ताहाल दूकानों यथार्थता को दर्शाते हुए उनकी मिठाइयों के बारे में व्यंग्यात्मकफुहार करते हुए कहते हैं,....."जो दिन-रात मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं वे हमारे देशी कारीगरों के हस्त-कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देतीं थीं वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो ,पर कूड़े कि स्वादिस्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने कि तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है |" यही नहीं वैद्य जी और बद्री से डांट खाए रुप्पन कि मनःस्थिति को मूर्तताप्रदान करते हुए उपन्यासकार के ब्यंग्य-भाव भरे शब्द इस प्रकार है,"सभी मशीनें बिगड़ी पड़ी हैं | सब जगह कोई-न-कोई गड़बड़ी है |सड़कों पर सिर्फ कुत्ते ,बिल्लियाँ और सूअर घुमते हैं | हवा सिर्फ धुल उड़ाने के लिए चलती हैं |आसमान का कोई रंग नहीं , नीलापन उसका फरेब है | बेवकूफ लोग बेवकूफ बनाने के लिए बेवकूफों कि मदद से बेवकूफों के खिलाफ बेवकूफी करते हैं |घबराने की ,जल्दबाजी में आत्महत्या करने की जरुरत नहीं...|"
रुप्पन के गुप्त साहित्य पर अपने भाव को रखते हुए उपन्यासकार के व्यंगात्मक भाव देखते ही बनता है जिसमें कटाक्ष के साथ-साथ समीक्षात्मक विवरण भी है ,"बहुत सी दफ्तरी बातों तरह गुप्त रहकर भी वह गुप्त नहीं रहता| विशिष्ट और जन-साहित्य की बनावटी श्रेणियों का अतिक्रमण कर वह सबके हृदयों में समान रूप से प्रतिष्ठित है | सुमित्रानंदन पंत की दार्शनिक भाषा में कहा जाए , तो 'मानव और मानव के चिरंतन 'संबंधों का ही वर्णन होता है |"
लेखक कि श्रमशीलता और तल्लीनता के कारण हुए बदलाव को शब्दों में लिखते हुए उपन्यासकार ने कहा है "किताब लिखना दिमाग के लिए कठोर और शरीर के लिए कष्टप्रद कार्य है |"
"रागदरबारी" उपन्यास में श्रीलालजी शुक्ल नें उस समय के सामाजिकता को दर्शाया है जिसमें कभी-कभार उनका आक्रोश भी कटाक्ष व्यंग्य के रूप में पाठक के सामने प्रतीत होता है ,इसमें साहित्यिकता से ज्यादा जीवन को कभी मनोरंजनात्मकता के तहत उकेरने कि कोशिश की गयी है तो कभी तीखापन का समावेश के साथ निरंकुशता पर आक्षेप को उकेरा गया है |
संदर्भ ग्रंथ:
रागदरबारी, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (एम्.एच.दी.-१५ ;हिंदी उपन्यास -२)
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