गुरुवार, 9 जुलाई 2015

आलोचना



आलोचना क्या है ? क्या यह समीक्षा का ही एक रूप है या फिर समाज के  विद्वानों कि हठधर्मिता का एक ज्वलित व्याख्या है ? इसे यदि बुद्धिजीवी और समाजवादी विचारों के द्वंदात्मक भाव का प्रतिरूप मानते हुए सुधार के नये-नये सोपानों कि स्वीकारोक्ति का सकारात्मक हामी समझा जाये तो उपयुक्तता होगी |
एक बात तो तय है कि आलोचना का जन्म ही उत्तमता की बहुलता या अधिकता के उपरांत ही पनपता है जिसके तह में झाँका जाये तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आलोचक कहीं न कहीं से आलोचित तथ्य हो या व्यक्ति या फिर कोई वाद उसे अतिउत्त्मता के साथ विकास कि ओर अग्रसर करने का पथ प्रदर्शित करता है | कभी-कभी तो आलोचनाओं के तहत ही हम  कुछ नया कर गुजरने हेतु कृतसंकल्प हो जाते  हैं | सही मायने में आलोचनाओं का रूप होना भी ऐसा ही चाहिए जिसमें अपनी बुनियादी उसूलों के साथ-साथ प्रयोगवादी तथ्यों के समन्वित रूप का संयोज्नात्मकता कि गुन्जाईस हो |
आलोचक यदि प्रगतिशीलता कि ग्राह्यता से ओत-प्रोत होगा तो स्वाभाविक है कि उसकी आलोचनाएँ भी कहीं न कहीं से लाभकारी तथा प्रेरणास्रोत का माध्यम बनेगी | आलोचक में स्वछंदता और प्रगतिशीलता दोनों कि उपस्थिति के कारण तथ्य कि निष्पछता खुलकर सामने आती है लेकिन स्वछंदता का मतलब यहाँ निरंकुशता से नहीं हो कर जमीनी हकीकतों कि परिपूर्णता से है | जिसके तहत आलोचना जब पनपती है वह विषैली नहीं वरन संजीवनी का रूप धर कर परिलक्षित होती है और हमें ऐसी आलोचनाओं का विश्लेषणात्मक रूप स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए | उत्तम आलोचना संसार को सर्वोत्कृष्टता प्रदान करने में सक्षम होता है |
एक बात तो तय है कि आलोचनाओं से विचलित न होते हुए हमें उसमें से सटीक तथ्यों को ग्राह्य करें तो परिणाम भी सकारात्मक होगा क्यूँकि उस वक्त आलोचक के वक्तव्यों को गौर कर इस सार्वभौमिकता को मुद्देनजर रखते दृढ रहना चाहिए कि वह अभी आलोचक का केन्द्रविन्दु ही नहीं वरन मुख्य पात्र है जरुर कहीं न कहीं 'उसने उसे आकर्षित किया है जिसमें उत्तमता के गुण तो है लेकिन कुछ नकारात्मकता नायक नहीं बनने देती है इसीलिए जरुरत है उस खामियों को दूर भगाने की बजाय इसके कि हताहत हो जाने के' | यदि इस भाव को रखते हुए हम आलोचनाओं को लें तो वे आशीर्वाद बन जाते हैं |
ये तो हुआ व्यक्तिवादी आलोचनाएँ लेकिन जब हम परम्पराओं या मानवीय विचारधाराओं को निशाने पर लेते हैं तो जरूरत है वहाँ भी इसी भाव को रखते हुए उसमें कुछ सुधार किये जाएँ जिसमें एक उदारवादी समन्वयक भाव उभर कर सामने आता है जिनके परिणाम चिरस्थायी और दूरगामी होते हैं | हठवादिता या निरंकुशता का परिणाम कभी भी फलित या लाभकारी नहीं होता है |
इस प्रकार आलोचनाओं का परिणाम भावावेश पर आधारित तथ्यों को लेकर नहीं आँका जाना चाहिए बल्कि जरुरत है उस वक्त जमीनी हकीकतों को भाँपते हुए लचीलेपन को प्रधानता दें जिससे परिणाम सर्वहिताय हो | उदारवादी और सम्न्व्यताम्कता विचारधाराएँ सर्वदा हितकारी होने के साथ-साथ चिरस्थायी होती हैं जिसमें उपचार-पद्धतियों के तहत (विश्लेष्ण करते वक्त) जो निर्णय लिए जाते हैं उससे कोई घायल नहीं होता बल्कि एक सकारात्मक एहसास और विश्वास को अपने अन्दर पाता है जिसमें कि सुधार की गुंजाईस होती है |

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