बुधवार, 25 मार्च 2015

महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा  
"यह कहना साहित्यकार का अपमान करना है कि वह जीवन के संघर्ष में साथ नहीं दे सकता |जो जीवन को आदर्श देते हैं,स्वपन देते हैं, अनुभूति देते हैं वे तो जीवन के निरंतर साथी हैं ही |...हमारा देश निराशा के गहन अंधकार में साधक साहित्यकारों से ही आलोक पाता रहा है | जब तलवारों का पानी उतर गया ,संखों का घोष विलीन हो गया तब भी तुलसी के कमंडल का पानी नहीं सूखा और सूर के एकतारे का स्वर नहीं खोया |"
२६ मार्च १९०७ होली के दिन उत्साह और उल्लास के साथ-साथ रंगों को बिखेरने के लिए हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की छायावादी स्तंभकारों में से सशक्त स्तम्भ का आगमन, भारत में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में माता हेमरानी और पिता गोविन्द प्रसाद के घर (महादेवी) हुआ | बचपन से ही काव्य और कविता करने वाली महादेवी की शिक्षा-दिक्षा के साथ-साथ कर्मक्षेत्र इलाहबाद रहा |वहीं छात्रावास में इनकी मुलाकात सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ भी हुआ | यही नहीं उनके परम मित्र सुमित्रानंदन पन्त और सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' रहे जो आजीवन उनसे राखी बंधवाते रहे | जिसमें 'निराला' जी ज्यादा करीब माने जाते हैं |
कारण जो भो हो वैवाहिक जीवन(सन्१९१६)उन्हें कभी नहीं भाया या यह कहा जाये कि उनकी उससे विरक्ति रही | हालाँकि डॉ.स्वरूप कुमार वर्मा ने भी महादेवी वर्मा के कहने पर भी अन्य कही रिश्ता नहीं जोड़ा | १९६६ में पति कि मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहबाद को ही अपना बसेरा बना लिया |
लेखन ,संपाद्कीय और अध्धयन इनके जीवन के अभिन्न अंग थे | प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में इन्होने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया जो महिला शिक्षा के लिए क्रांतीकारी प्रयास था | १९३९ ई. में इनकी चार कविता संग्रह 'नीहार' ,'रश्मि' ,'नीरजा' और 'सांध्यगीत' को यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया | गद्य के क्षेत्र में 'मेरा परिवार', 'स्मृति की रेखाएं', 'पथ के साथी', 'शृंखला की कड़ियाँ' और 'अतीत के चलचित्र' प्रमुख हैं।
इन्होने जब लेखनी की दुनिया में कदम रखा उस समय द्विवेदी युग खड़ी बोली को प्रतिस्थापित करने के लिए संघर्षरत थे वहीं इन्होने माँ कि प्रेरणादायक और अपनी स्मृतिपटल को उजागर करते हुए ब्रजभाषा में श्रीगणेश किया वहीं बाद में आकर छायावादी के स्तंभकार पन्त जी व निराला जी से प्रभावित हो खड़ीबोली को अंगीकार करते हुए अपने कविता में वेदना और पीड़ा का समावेश कर नारी को उद्धृत किया है | यही नहीं उनके गद्य में भी संस्कृति,शिक्षा,राष्ट्र और भाषा के साथ-साथ नारी के प्रत्येक रूप का तुलनात्मक भाव का समावेश है |उन्होंने संस्कृति को सृजनशीलता के तहत गतिमान तो माना है किन्तु उसके मूल तत्वों को सजोने का संदेश दिया है |
उतर प्रदेश के विधान परिषद में भाषण देते वक्त उनका वक्तव्य था ,"आज हम राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र हैं पर हमारी मानसिक दासता अब तक दूर नहीं हो सकी है और ण हमारी संकीर्णता से त्राण पा सकी है | परिणामतः हमारे सामने नव-निर्माण की कोई रुपरेखा नहीं है | हमारी राजनीति दलों में गतिशील है | हमारा धर्म रुढियों में अचल है और हमारा समाज विषमता में मूर्छित है | हमें इस अंधकार के पर गंतव्य खोज लेना है ,..."
इस प्रकार उन्होंने साहित्य और साहित्यकारों कि महत्ता के साथ-साथ इन्हें विश्व की अमानत कहा है | कहने के पीछे मुख्य उद्देश्य यही है कि साहित्यकारों या विद्वानों कि विद्या जिस प्रकार संकीर्ण नहीं होती उसी प्रकार राजनीतिज्ञों को भी दलगत संकीर्णताओं से बाहर आना चाहिए और जनसामान्य की भलाई के साथ-साथ सार्वभौमिकता को तरजीह देना चाहिए |
यही नहीं १४ जून १९७५ को कुमायूँ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उन्होंने कहा था कि ."...मै जब विद्यार्थी को देखती हूँ ,दीक्षा प्राप्त उपाधिधारी विद्यार्थी की आँखों में देखती हूँ और कोई गंतव्य नहीं पाती ,कोई स्वप्न नहीं पाती तो मेरा मन सचमुच रो उठता है |...मेरे विचार में विद्यार्थी जीवन एक निर्माण का जीवन है | उसमें तिन युग मिलते हैं -इसमें अतीत कि उपलब्द्धियां मिलती हैं ,वर्तमान कि समस्याएं मिलती हैं और भविष्य का जो राष्ट्र और जीवन बनेगा उसका चित्र मिलता है |..."
नारी गाथा इनकी रचनाओं में ही नहीं वरन हकीकत के राह में भी उनका योगदान अमूल्य है |भारतीय नारी के बारे में अपना वक्तव्य सुनाते हुए उन्होंने कभी कहा था "...भारत की स्त्री तो भारत मन का चित्र है,प्रतीक है वह अपनी समग्र संतान को सुखी देखना चाहती है ,उसे मुक्त करने उसकी मुक्ति है ;क्योंकि हमारी संस्कृति ने उसे तीन रूपों में देखा है |वह संस्कृति चाहती है तो ब्रम्हा महोदय को ज्ञान का प्रतीक बना देती है | उसने सरस्वती को बनाया और देश की सारी समृद्धि उसने लक्ष्मी को सौंपी | स्त्री सारी समृद्धि की भी अधिष्ठात्री है | जहाँ अन्याय है ,अत्याचार है ,आसुरी शक्तियाँ हैं वहाँ वह चंडी भी है |..."४ 
उन्होंने अपना सारा जीवन देश और देशवासियों के बारे अपनी लेखनी के तहत योगदान देने में ही समर्पित कर दिया |उनका मन संकीर्णता और मनमुटाव से डरता ही नहीं वरन दुखी भी था तभी तो उनके ये उदगार बहुत कुछ स्पष्टीकरण देते हुए प्रतीत होते हैं ," आधुनिक युग में जब विज्ञान ने समुंद्रों और पर्वतों का अंतर दूर कर एक देश को दुसरे देश के पास पहुंचा दिया है ,जब अणुबम के अंतक छाया में भी अमर मानवता जाग उठी है ,और जब ध्वंस के लपटों के नीचे भी निर्माण के अंकुर सिर उठा रहे हैं ,तब हम मनों कि दूरी बढ़ा कर ,संदेह के प्राचीर खड़े कर और विरोध के स्वरों में बोल कर अपनी महान परम्पराओं की अवज्ञा ही करेंगे |"५  
भाषा को लेकर प्रारंभ से ही एक प्रादेशिक और देशी कलुषता रही है उस पर भी कुछ परिवर्तनों को लेकर हठधर्मिता पर उन्होंने अपने भाव को सहजता के साथ रखते हुए मूल भाव बनाये रखने का सुझाव देते हुए  कहती हैं,"अंग्रेजी भाषा-भाषी विश्व भर में फैलें हैं;उनमें देशज संस्कार भी हैं;परन्तु इससे न अंग्रेजी का सर्वमान्य गठन खंडित होता है और न उसे नये नामकरणों की आवश्यकता होती है | विश्व के सभी महत्वपूर्ण भाषाओं के सम्बन्ध में यह सत्य है |परिवर्तन भाषा के विकास का परिचय है; पर परिवर्तन में अंतर्निहित एक तारतम्यता उसके जीवन का प्रमाण है |...हिंदी अपना भविष्य किसी से दान में नहीं चाहती |वह तो उसकी गति का स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए |जिस नियम से नदी नदी की गति रोकने के लिए शिला नहीं बन सकती,उसी नियम से हिंदी भी किसी सहयोगिनी का पथ अवरुद्ध नहीं कर सकती |"
कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ इनकी लेखनी का जादू न चला हो ,फिर चाहें वो बात प्रकृति की हो या उनके गिल्लू की या देश में व्याप्त सभी भाषाओं की ही क्यूँ न हो | उन्होंने कभी भी नहीं माना कि अवरोध बोल कर भी कुछ होता है | हर हाल को सहजता के साथ स्वीकारना और उसे सरल बनाना उन्हें बखूबी आता था | काव्य कृति के प्राम्भिक दिनों में जहाँ करुणा और वियोग तथा विरह व वेदना से ओतप्रोत थीं वहीं अपने अंतिम क्षण में रची गयी कविता में "अग्निरेखा" में उनकी उसी विरह को दवा बनते देखने को मिलता है |अब उनकी परिपक्वता कह उठती है ,जो 'अग्नि-स्तवन' कि ये पक्तियां ज्वलंत उदाहरण है जहाँ कवियत्री ने ज्वाला के पर्व की बात करती हुई कह उठती हैं ,...चमत्कृत न हो चमकीला
किसी का रूप निरखेगा.
निठुर उसे अंगार पर
सौ बार परखेगा
खरे की खोज है इसको,नहीं यह क्षार से खेला !
वहीं गीत में भी कहती हैं ,"पूछो न प्रात की बात आज
                                  आज आंधी कि राह चलो |"
यही नहीं इनके संस्मरणों और रेखाचित्रों में जीवन्तता देखते ही बनती है | उन्हें विधान सभा (उत्तर-प्रदेश) का सदस्य भी मनोनीत किया गया |उन्हें अनेकों पुरस्कार से सम्मानित किया गया |जिसमें 'पद्म-भूषण','डी.लिट.','सक्सेरिया-पुरस्कार','ज्ञानपीठ-पुरस्कार',और अंततः 'पद्म-विभूषण', से भी सम्मनित किया गया |इस प्रकार सार्वजनिक जीवन में आने वाले प्रताणित और दिन-दुखियों के साथ-साथ समाज में व्याप्त विरह और वेदना को ही नहीं वरन सामान्य से दिखने वाले प्राणीमात्र के साथ-साथ गिलहरी तक को भी अपने कहानी और संस्मरणों में अपनी संवेदनशीलता के तहत शब्दांकित कर पाठक कि चिर-परिचितों में मुख्य बन कर छाने वाली लेखिका बन गयीं | हालाँकि हम उन्हें एक कवियत्री के रूप में ज्यादा स्मरणीय मानते हैं जबकि उनके विचारात्मक निबंधों में जो तेजस्विता और लालित्य के दर्शन होते हैं अन्यत्र इतना सबकुछ एकत्रित पाना विरला ही होता है | एक विश्लेषक,चिंतक और संवेदनशीलता और बौद्धिकता कि पराकाष्ठा को छुते हुए इनके निबंध और संस्मरण इन्हें एक गद्यकार कहने के लिए हमें विवश करते हैं | धर्म के कर्मकांडों में नहीं वरन मानवीयता से उनकी सान्निध्यता ज्यादा थी ,अन्यथा उनकी रचनाओं में खासकर के निबंधों के विषय-क्षेत्र एक समाज के तबके से नहीं वरन उसके प्रत्येक नब्जों को कुरेदते हुए ही नजर नहीं आते बल्कि आलोचनात्मक और सकारात्मक सुझाव भी रखे गए जिसे तर्क कि कसौटी पर परख कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया गया हो |
हिंदी साहित्य कि आधुनिक मीरा के नाम से भी इन्हें पुकारा गया | नाम के अनुरूप ही प्रतिभा की खान को काल कब छोड़ सकता था | यह तो त्रिकाल सत्य है |११ सितम्बर १९८७ को काल ग्रसित हो गयी लेकिन आज भी अपनी कालजयी रचनाओं के तहत हम सबके साथ हैं |
संदर्भ :
१. महादेवी साहित्य,सं.निर्मला जैन,वाणी प्रकाशन २१ए,दरियागंज,नयी दिल्ली ११०००२तृतीय परिवर्तित व संशोधित संस्करण २००७ पृष्ठ ३९
२.  वही  पृष्ठ ३८
३.वही पृष्ठ ४९
४.वही पृष्ठ ५५
५.वही पृष्ठ ६२
६.वही पृष्ठ ६३
७. http://pustak.org/bs/home.php?bookid=7879


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