शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

सिनेमा और समाज

 आज सिनेमा में लोग सामाजिकता को कम बल्कि यह कहा जाये कि कुछ हट कर देखना चाहते हैं तो संभवतः किसी हद तक उपयुक्तता की श्रेणी में रख सकते हैं |खैर समाज या देश किसी एक पद्धतियों के तहत् नहीं बंधा होता है फिर भी सर्भौमिकता को सभी स्वीकार न चाहते हुए भी किसी न किसी रूप में करते ही हैं | इसमें कोई शक नहीं है कि सिनेमा एक रचनात्मक विधा है जहाँ एक कहानी ,एक रचनाकार कि कृति को कलाकार के माध्यम से समाज के सामने अपने आपको रखता है |मुझे ऐसा लगता है कहानी कैसी है इससे ज्यादा फर्क या असरदार तब होती है जब दर्शकों में बैठा समाज का व्यक्ति उसके किस पहलू को समझता है या आत्मसात करता है | प्रत्येक रचना में रचनाकार कुछ कहना चाहता है बस उसका जरिया अलग हो सकता है | कभी वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोलता है तो कभी हास्यास्पद को जरिया बनाता है या फिर अपनी बौद्धिकता के जरिये संवाद को कलाकार से उद्धृत करवाता है | अब रह गयी बात हमारी अर्थात् दर्शकों को परिचित करवाने की | उसमें कलाकर कितनी तत्परता से उस भाव को व्यक्त करने में अपने प्रदर्शन को निखार पाता है |
एक दौर था जब पारिवारिक और रोमांस को वरीयताएँ मिलती थी लेकिन आज का दर्शक इनसे हटकर देखना चाहता है | कभी-कभी लगता है आज का समाज कल्पनाओं और हकीकतों को नजरअंदाज करते हुए कुछ सार्थकता की तलाश में है |


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