बुधवार, 24 सितंबर 2014

पाण्डवों का अज्ञातवास


पाण्डु के पांच पुत्रों को पाण्डव और धृतराष्ट्र के पूत्रों को कौरव के नाम से महाभारत में स्थान दिया गया है | जिसमें धृतराष्ट्र जन्मांध थे और उनकी पत्नी गांधारी ने विवाहोपरांत अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली थी |पाण्डु और कुंती पुत्रों का नाम युधिष्ठिर, अर्जुन , भीम और नकुल और सहदेव था | वहीं धृतराष्ट्र और गांधारी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन के को लेकर सौ पुत्रों जिन्हेँ कौरव कहा गया के साथ उनका मामा जो गांधार युवराज शकुनी (जो अपनी बहन के अपहरण कर शादी करने के करण बदला लेने हेतु अपनी बहन के साथ ही हस्तिनापुर में ही रहता था ) के कूटनीतिक चालों के तहत युधिष्ठिर ( जो सरल सीधे और सत्यवादी थे ) की चौसर खेलने की कमजोरी का फायदा उठाकर उन्हें उनके साथ प्रत्येक चाल दर चाल मात देते हुए शर्त में उनसे उनका बारह साल का वनवास के साथ-साथ एक साल का अज्ञातवास की सजा सुनाई जिसके अंतर्गत् पहचाने जाने पर फिर से वनवास की सजा कटनी पड़ेगी | यही नहीं इसके  अतिरिक्त जब उनके पास देने के लिए कुछ नहीं शेष रहा तो उनकी पत्नी द्रौपदी को भी चौसर के खेल में हर गए | महाभारत की कथा भारतीय-संस्कृति के मानवीय चिंतन पर आधारित एक अमूल्य धरोहर है | पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के लिए विराटनगर के राजा विराट की नगरी को चुना जहाँ उन्होंने अपने भेष बदल कर सफलतापुर्वक एक साल पूरा किया | उन्हें पहचानने और फिर से सजा दुगनी करने के लिए दुर्योधन ने अपने जासूस छोड़ रखे थे | पाण्डवों ने अपनी रानी द्रौपदी सहित अपने हथियार कहीं छिपाकर राजा विराट से कुछ न कुछ नौकरी करने के लिए प्रार्थना की जिसे राजा विराट ने अपनी सहमती प्रदान कर दी |
इस प्रकार राजा विराट की सहमती के तहत युधिष्ठिर ने वहीं ब्राह्मण बन किसी राजा का विश्वसनीय सलाहकार का रूप धारण किया | भीम ने रसोइये का मुखिया का भेषभूषा बनाया तो वहीं अर्जुन को चूँकि ऐसी मान्यता है कि उन्हें एक साल तक नर्तक बनना पड़ेगा जिसे स्वर्ग की नर्तकी ने दे रखा था उसी के फलस्वरूप अर्जुन ने रानी उत्तर के लिए नृत्य सिखाने का काम उन्होंने अपने लिए उचित समझते हुए उसे ही अपनाया | नकुल और सहदेव ने क्रमशः घोड़ों और गाय के देखभाल करने की जिम्मेदारी को अपनाया | द्रौपदी को रानी सुदेशना की देखभाल के लिये रखा गया | इस अज्ञातवास के समय इन पंचों भाईयों पर असमंजस की स्थिति उस समय आयी जब रानी सुदेशना के भाई केचक जो की विराट राज्य का सेनापति था कि बुरी दृष्टि रानी की सेविका बनी द्रौपदी पर पड़ी | यही नहीं उसने सेविका बनी द्रौपदी से शादी का प्रस्ताव रखा तो शादीसुदा द्रौपदी ने इंकार कर दिया | एक दासी द्वारा इंकार सुन केचक को अपना अपमान लगा और उसने द्रौपदी को निचा दिखाने के लिए उसे एक योजना के तहत फसना चाहा जिसे द्रौपदी की चालक भंगिमा को समझते देर न लगी और उसने रसोइया के मुखिया बने भीम से अपनी रक्षा करने की एक योजना के तहत केचक के प्रहार को रोकते हुए उसे वहीं मार डाला जिससे द्रौपदी तो बच गयी लेकिन केचक का खत्म हो गया जिसे सुबह द्रौपदी ने अपनी रानी से कहा केचक ने जब उसे रात के समय बिना बताये उसके कमरे में प्रवेश कार उसके साथ बद्द्त्मीजी करनी चाही तो किसी ने उसकी आवाज सुन आकर केचक को मार डाला लेकिन वह उसे पहचान नहीं पायी जिस पर रानी ने विश्वास कार अपने भाई केचक के दुर्व्यवहार हेतु माँफी माँगी | लेकिन केचक की मृत्यु ने दुर्योधन द्वारा भेजे हुए दूतों द्वारा और दुर्योधन के शक को एक किरण मिल गयी की शायद मरने वाला पांडवों में से ही कोई है | अतः वह विराटनगर पर आक्रमण कर दिया | जिसका यह नतीजा निकला कि सभी मिलकर आक्रमण का सामना करने हेतु तत्पर हो गए | युधिष्ठिर ने विराट से कहा हम सब आपकी इस युद्ध में मदद करना चाहते है | तब राजा ने कहा तुमने कभी युद्ध किया है ब्राह्मण तो युद्ध नहीं करते हैं | लेकिन युधिष्ठिर ने अपनी वाक्चातुर्यता से भीम ओको केचक से भी बलवान बताते हुए जहाँ राजा को आश्वस्त कराया वहीं  युद्ध के दौरान अर्जुन को जब दुर्योधन ने पहचान लिया तब उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था लेकिन उस अहंकारी और व्यसनी को जब यह पता चला की अभी-अभी ही पाण्डवों ने अपने वनवास की अवधी सफलता पूर्वक पूरा कर लिए हैं | तब वह हताश और निराश हो युद्ध मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ | तद्परांत राजा विराट से युधिष्ठिर ने सारी सच्चाई बताते हुए उन्हें मदद करने हेतु धन्यवाद स्वरूप अपनी शालीनता और विशालता के तहत विजय रूपी माला ही नहीं पहनाई वरन विराट ने खुश होकर अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर उन्हें अपना रिश्तेदार बना लिया |
दुर्योधन इतने से भी संतुष्ट नहीं हुआ और पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी जमीन देने को तैयार नहीं हुआ | जिसका परिणाम युद्ध में परिवर्तित हो गया |
“दुर्योधन के सुख में प्रच्छन्न रूप से बैठा है , दुःख और युधिष्ठिर की अव्यावहारिकता में प्रच्छन्न रूप से बैठा है धर्म | यह माया की सृष्टि है जो प्रकट रूप में दिखाई देता है , वह वस्तुतः होता नहीं और जो वर्तमान है वह कहीं दिखाई नहीं देता |” इसका आशय यह है की इस अज्ञातवास की सजा के तहत अहंकारी और मदमस्त दुर्योधन अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझने का भूल करते हुए प्रसन्न होता है | धर्म के राह पर चलने वाले युधिष्ठिर की एक बुरी लत ने उन्हें उसकी सजा तो दिलाई जो वर्तमान के लिए एक अंतर्निहित सन्देश बन गया |
“दयूत में हारने के पश्चात पाण्डवों के वनवास की कथा है | कुंती ,पांडु के साथ शत-श्रृंग पर वनवास करने गयी थीं | लाक्षागृह के जलने पर , वह अपने पुत्रों के साथ हिडिम्ब वन में भी रही थीं | महाभारत की कथा के अंतिम चरण में, उसने धृतराष्ट्र, गांधारी तथा विदुर के साथ भी वनवास किया था |...किन्तु अपने पुत्रों के विकट कष्ट के इन दिनों में उनके साथ में विदुर के घर रही | क्यों ?”2 इसका मतलब कुंती अपने पुत्रों को जीवन के संघर्षो को जीने की एक रह तो सुझाना ही चाहती थीं जो कठोर तो था लेकिन उन्हें कहीं न कहीं अन्दर सालता जरुर था अन्यथा वे अपना मायका (दोनों मायका) तथा हस्तिनापुर छोड़कर अपने विश्वसनीय विदुर का घर ही अपने लिए उन तेरह वर्षों के लिए नहीं चुनती | एक माँ और दुर्योधन की काकी होने के कारण उन्होंने इसे नियति के ऊपर छोड़ते हुए गांधारी से भी दुरी बना ली थीं | मेरे ख्याल से कहीं न कहीं परिवार के सदस्यों के बीच इस प्रकार की घटना ने उन्हें झकझोर जरुर दिया था किन्तु धर्म और सत्य की विजय के प्रति आशान्वित भी जरुर थीं | यह उनका ममत्व ही था कि उन्होंने कर्ण से यह वचन ले रखा था की वह अपने ही भाईयों को न मारे तब अर्जुन द्वारा भरी महफिल में अपमानित करण ने अपनी माँ को वचन दिया माँ मै तुम्हे वचन देता हूँ की अर्जुन को छोड़ कार मै अपने चार अन्य भाईयों को छुऊंगा तक नहीं अतः इतना धैर्य रखो की तुम्हारे पांच पुत्र अवश्य रहेंगे | ये सारी घटनायें हमें रोमांचित तो करती ही हैं साथ ही साथ इसमें अंतर्निहित सन्देश से सबक लेने के लिए भी प्रेरित करती हैं की युद्धोपरांत हुए खूनखराबे वो भी अपने जनों की , से मिला राजपाठ मन हमेशां क्लांत किये रहता है |
मरते वक्त अंत में दुर्योधन का यह कथन की मेरे पिता अंधे क्यूँ हुए ...? एक दर्द है ,एक सत्य का आभाष है | शायद आज अंतिम समय में उसे अपने शकुनी मामा की कुटिलता के पीछे छिपे बदले की भावना से हस्तिनापुर के मार्मिक अंत का राज समझ में आता है या फिर कुछ और ...| अंत समय में दुर्योधन युधिष्ठिर को भी धर्मराज की जगह महत्वकांक्षी कह कर सम्बोधित करते हुए कह उठता है कि तुम सबने भी तो उन अज्ञातवास के समयावधि में अपने राज्य को पाने के लिए विराटराज से मैत्री के साथ-साथ उनके बेटे से अभिमन्यु की शादी के तहत अन्य राजाओं को मैत्रीपत्र के साथ-साथ युद्ध हेतु सेना तैयार किया गया | चौरस की खेल में तुमने द्रौपदी को दांव पर लगाया क्या तुम्हारी लत और भूल ने इसे आगे नहीं बढ़ाया ? गम एक ही है की किसी ने तथ्यों के तह में न जाकर एक अन्याय के लिए सारा विध्वंस कर डाला | ये सारे सन्देश ही तो हैं | जो आज के लिए भी प्रासंगिक होने के साथ-साथ उस समय का एक कटु सत्य है | इस प्रकार अज्ञातवास के तहत पाण्डवों द्वारा अपने छिपे गुणों का सदुपयोग धैर्य और शांति के साथ क्रियान्वित ही नहीं किया वरन उसमें सफल भी हुए | अतः इसमें छिपी भावना और साहस आज के इस संघर्ष शीलता को अपनी क्रियान्वयनता के सकारात्मकता को उजागर करने के लिए प्रेरित करते हैं की जो कर्म और क्रिया तुम्हेँ सही दिशा दे उसमें थोड़ी सी शालीनता सफल कदमो की तरफ तुम्हे इंगित करती हुई लक्ष्य तक ले जाने में सफल सीढ़ी का काम करती हैं |
संदर्भ ग्रन्थ :
२.      http://pustak.org/home.php?bookid=3191



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