बुधवार, 25 जून 2014

साहित्य मशाल है...!

हिंदी साहित्य के कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने कभी ये बातें उन्होंने उद्बोद्धित की थी | वास्तव में हम-सब इन महान साहित्यकारों के ऋणी हैं जिनकी निःस्वार्थ सेवा ने ऐसे अमूल्य अमानत को हमारे सामने रखा है | लेकिन क्या आज हमारे छात्रों की रूचि साहित्य के प्रति है ? सवाल हल्का नहीं है | जरुरत है इन्हें परखने की और उस पर अमल करने की | पता है साहित्य के प्रति रूचि न रखना ही आज हम सबको अपनी जड़ से दूर किये जा रहा है | छात्रों को भी मै दोष नहीं देती वे भी क्या करें साहित्यकार बन आजतक किसने क्या पाया ?कुछ को तो मरने के बाद  याद किया गया कुछ का तो हम नाम भी ठीक से नहीं याद रख पाते हैं और बहुतेरे ऐसे हैं जो अँधेरे -गलियारों में गुमनामी के शिकार हो गए हैं | अब समझ में आता है कि भारत को सोने की चिड़िया क्यूँ कहा जाता था | क्यूँकि हमारी सोच और रहन-सहन की भिन्नता ही कहीं न कहीं कारण बनती है हमारे सांस्कृतिक धरोहर की | लमही गाँव (जन्मस्थली - प्रेमचंद) में जहाँ उनके स्मरण में एक पुस्तकालय है जिसका अभी -हाल-फिलहाल में हिंदी  न्यूज-चैनल (NDTV)  के रवीस जी द्वारा प्रस्तुति के तहत ही मै अवगत हुई की कितने सम्मानजनक स्थिति है आज हिंदी और उनके कर्णधारों की ? फिरभी लोग हिंदी को यदि इस सर्कार द्वारा महत्ता देने की कोशिश जरा सा शुरू भी हुई तो लोग इसके साथ आत्मसात करने के बजाय विदेशी भाषा आज सर्वोपरि है वो उन्हें मंजूर है किन्तु अपनी राष्ट्रभाषा को यदि सम्मान हेतु विचरों को तरजीह दी जाये तो अपने ही घर में बवाल मचाने वालों  की लम्बी क़तार सज जाती है |
यही कारण है की आज किसी भी भारतीय साहित्य को वो मुकाम नहीं हासिल हो पाया जो उसे मिलनी चाहिए |इसका सबसे बड़ा खामियाजा नयी -पीढ़ी का इनके प्रति (हिंदी- साहित्य) झुकाव कम होता जा रहा है |इसका एकमात्र कारण हिंदी की तुलना अपने-अपने क्षेत्र या यूँ कहा जाये की प्रान्तों की भाषाओं से करना ही है | अंग्रेजी का शासन मंजूर है किन्तु भारतीयता की पहचान की जगह प्रान्तों को यदि महत्ता दिया जायेगा तो ? नहीं सोचना ,हिंदी की पहचान अन्तरराष्ट्रीयता के तहत है फिर भी हम अपने देश की मशाल का अनुकरण करने से हिचकिचा रहे हैं |
(आज का  साहित्यकार तलाशने में लगा है अपने अस्तित्व को |कड़वा सच है जो भले ही अटपटा लगे लेकिन सार्वभौमिक-सत्य है इसे नाकारा नहीं जा सकता है | इनकी तुलना कृषिप्रधान देश के अन्नदाता किसानो से किया जाये तो शायद सटीक बैठता है |) मत अनदेखा करो इस कीमती मशाल की | कोई जरुरत नहीं अन्य अन्वेषणों में भटकने की हमारा खजाना आज भी बहुमूल्य है बस धूमिल होने से पहले इसे पहचानने की आवश्यकता है |व्यक्तिगत् से देशहित की परवाह करने की |मत भूलो हिंदी-साहित्य का प्रथम शोधकर्ता  सर जे.एन.कारपेंटर जी ने तुलसीदास के धर्मदर्शन पर लन्दन विश्वविद्यालय १९१८ ई. में किया था |
आज हिंदी में शोध-सिद्धांत पर पुस्तकों अक नगण्य होना यह दर्शाता है की इसकी शोध-पद्धति व्यावहारिकता पर आश्रित हैं जिसको वैज्ञानिक आधार देना शायद शोधार्थियों को अपनी तरफ आकर्षित कार सकने में सक्षम हो और मशाल के लव को सम्हाला जा सके |



























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