शुक्रवार, 9 मई 2014

हिंदी और दक्षिण भारत

भाषा हमारी पहचान है इसे जबरदस्ती थोपे जाने के बजाय हम सबकी कोशिश यह होनी चाहिए कि लोग उन्हें भाषा विशिष्टता की वजह से नहीं वरन अंतर्मन से स्वीकार करें |इसका एक फायदा यह होगा कि लोग भाषा को अपनाने और सीखने के लिए जहाँ उत्सुक और तत्पर होंगे वहीं सरकार को भी यही चाहिए कि उन्हें हिंदी से सम्बंधित अधिक रोजगारों का मुहैया कराये तथा इसके साथ-साथ लोगों को विश्वास दिलाये कि हिंदी हमें एकसूत्र में बाँधने के लिए अतिआवश्यक है | एक बात तो तय है कि अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है | मै यह नहीं कहती की अंग्रेजी पढना बेकार है वो हो भी नहीं सकता है क्यूंकि अंग्रेजी जहाँ हमें विस्तृत (विदेशों में भी हम कार्य कार सकते हैं ) बनाती है  वैसे ही हिंदी हमारी भारतीयता को जताती है |
जहाँ तक सवाल है दक्षिण भारत का ,यहाँ शहरी क्षेत्रों में तो फिर भी लोग समझ लेते हैं लेकिन प्रत्येक स्थल का यदि भ्रमण किया जाये तो लोगों की प्रतिक्रिया यह प्रतीत करा देती है मानों हम अपने देश से बाहर के लोगों से मिल रहे हैं | इसके लिए सरकार को कुछ लुभावने रोजगारों की व्यवस्था करनी होगी | हम अपने बच्चों को आज अच्छे से अच्छे अंग्रेजी की शिक्षा क्यूँ दिलाते हैं , बस इसलिए कि आज यह सच्चाई है कि एक स्तर का नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी आनी जरुरी है | जबकि सही मायने में देखा जाये तो हिंदी की अवस्था जब हम स्वतंत्र नहीं हुए थे तो आज की स्थिति से अच्छी थी | क्यूँ नहीं उपन्यासों के सम्राट प्रेमचन्द्र और नाटक सम्राट जयशंकर प्रसाद पनप सके ? क्यूँ आजतक दूसरी कामायनी नहीं लिखी जा सकी ? कारण हम सभी हैं | आज सही मायने में जीतनी माँग और सम्मान हिंदी को बाहर मिलती है शायद उसका एक अंश भी हमारे अपने लोगों ने नहीं किया है | लोग साहित्य और साहित्यकारों को पढना नहीं चाहते हैं | आज हिंदी के प्रति बढती अरुचि राष्ट्रीयता और भारतीयता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है | हिंदी की अर्थी नहीं उठेगी , साहित्यिक-गतिविधियों को सक्रियता के साथ संचालित  करना होगा यदि हमें अपनी भारतीयता प्यारी है तो | मुझे लगता है आज हिंदी क्षेत्रों में भी इसकी महत्ता को नजरअंदाज कार दिया गया है | समझना होगा और लोगों को समझाना होगा कि हिंदी क्यूँ जरुरी है ? पहचान खो कार जीना कोई जीना नहीं होता है |
दक्षिण भारत में बुद्धिजीवी-वर्ग तो हिंदी के साथ तारतम्यता को बनाये रखा है ,लेकिन कहीं न कहीं मैं इन्हें दोष नहीं दे सकती हूँ क्यूँकि मातृभाषा और रोजगार की भाषा अंग्रेजी के बाद तो हम राष्ट्रभाषा को अपनायेंगे | १९१८ ई॰ में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को स्थापित किया उसके बाद इस तरह की कोई योजना बनी हो मुझे तो याद नहीं है | क्यूँ ? उस समय हम गुलाम थे न | आज तो शासक और शासकीय व्यवस्था सब अपने हैं कहाँ है हम ? पता सभी को हमने ही बोलना सिखाया है | सबसे पुरानी लिपि  'ब्राह्मी' और 'देवनागरी'लिपि हमारी है | फिर भी हिंदी बिचारी है !!! 

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