शनिवार, 31 मई 2014

हिंदी साहित्य में भक्तिकाल

समाज हो या इतिहास की कोई भी सभ्यता ,यदि हम सुक्छ्मता से देखे तो यह सर्वविदित ही नही सार्वभौमिक सत्य है कि  “स्वर्ण एक मूल्यवान द्रव्य है | अतः किसी भी उपलब्द्धि और उसकी उपयोगिता की समानता यदि हम सोने के मापदंड से करे तो यह मानविक प्रवृति के तहत ही आंकी जाएगी और साथ ही साथ भक्तिकाल को स्वर्णयुग कहने का तात्पर्य यही है की हिंदी साहित्य के अन्यकालों की अपेक्छा भक्तिकाल उपलब्द्धि की कसौटी पर खरा उतरे या उसके योगदानों का सापेक्छ रुप से सर्वोत्तम होना |इसे हम साहित्यकारों की विवेचना को व्याख्यायित करते हुए उद्दघोषित करेगें |
भक्तिकाल का उदय : इस काल की उत्पत्ति को लेकर हिंदी साहित्येतिहास में व्यापक-विची-विमर्श हुआ है |सर्वप्रथम जार्ज ग्रियर्सन ने अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा है,हम अपने को एक ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते हैं , जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है , जिन्हें भारतवर्ष ने कभी देखा था .....इस युग में धर्म ,ज्ञान का नहीं ,बल्कि भावावेश का विषय हो गया था | यहाँ से हम साधना और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्मावों का साक्छातकार करते है जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाती का नहीं है , बल्कि जिसकी एकता मध्य युग के यूरोपियन भक्त बर्नड ऑफ़ क्लेअरबक्स, टामस-ए-केम्पिस और सेंट ठेरिसा से है |.....विजली के चमक के समान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतों के अंधकार के ऊपर एक नयी बात दिखायी दी |कोइ हिन्दू यह नहीं जनता कि यह बात कहाँ से आई और कोइ भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चय नहीँ कर सकता | इस आधार के तहत ग्रियर्सन महोदय ने उत्तर-भारत के भक्ति –आन्दोलन को ईसाइयत की देन सिद्ध किया है | इनके इस विशलेषण का बाद के सभी इतिहासकारों ने विरोध किया किन्तु ग्रियर्सन महोदय की महत्ता को हम नजरअंदाज इसलिये नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने भक्ति आन्दोलन की पहचान सबसे पहले की |सेंगर,ग्रियर्सन के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के इतिहास में सुदृता और सार्वभौमिकता प्रतिलक्छित् होती है | उनके अनुसार भक्ति साहित्य हतोत्साहित और पराजित हिन्दू जनता की प्रतिक्रिया है |शुक्ल जी के शब्दों में,ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न विना लज्जित हुए सुन ही सकते थे |आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लङने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए |इतने भारी राजनितिक उलट-फेर के पीछे हिन्दू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही | अपने पौरुष से हताश जाती के लिये भगवान् की शक्ति और करूणा की ओर जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ? इस प्रकार शुक्ल जी ने अपने विशलेषण में उस समय के इतिहास के केन्द्रीकरण की विशेषता को रेखांकित किया है | उनके द्वारा मूल्यांकित तथा विश्लेषित भक्ति का मूल स्रोत दक्छिण भारत है किन्तु उसके विकास और प्रसार के लिये अनुकूल परिस्तिथियों का श्रेय सीधे तात्कालिन सामाजिक एतिहासिक पृष्टभूमि से है |
जबकि द्विवेदी जी (हजारी प्रसाद) तात्कालिकता को तो महत्पूर्ण मानते हैं किंतु प्रभावित केवल चार आना ही हैं |इन्होंने परम्परा पर अधिक ध्यान दिया है |इसके बावजूद बारह आना में लोक-शक्ति’ को प्रधानता देते हुए शास्त्र की तरफ आकर्षित होने का कारण मानते हैं |
इस तरह भक्तिकाल के प्रादुर्भाव रूपी विवेचनोपरांत हम इससे अवगत होते हैं की भक्तिकाल से पूर्व हिंदी साहित्य का ‘विजन’ संकुचित रहा और यह किसी बड़े आदर्श से चालित नहीं था |वह एक तालाब के ठहरे हुए जल की तरह था जिसमे प्रेरणा का अभाव था किन्तु भक्तिकाल एक ऐसी अध्त्मिक किरण पुंज को लेकर अवतरित हुआ जो एक निश्चित लक्छ्य और आदर्श के साथ जिसमें लक्छ्य का अधर बना भगवदभक्ति तो आदर्श का रूप था उनकी शुद्ध सात्विक जीवन और साधना तथा भगवान के निर्मल चरित्र और लीलावों का गान | भक्तिकाल को संछिप्त वर्णन :- :

    
           


इस प्रकार भक्तिकाल अनेक युगग्पर्वतक महारथी से लबालब है ,जो अपने-अपने छेत्रो के दिक्पाल प्रतीत होते हैं | इस काल का साहित्य  साफ शब्दों में घोषणा करता है कि लक्ष्य बङा होने से ही साहित्य बङा होता है | भक्ति साहित्य की भाषा समाज के बीच की है | इसकी शैली सहज है | हिंदी साहित्य में असली छन्दों का प्रयोग यही से आरम्भ हुआ है | गम्भीर से गंभीर बातों को भी लोकभाषा में प्रचारित करने का काम भक्ति साहित्य ने किया है |आज भी गावों,दूर देहातों और शहरों में भी तुलसीकृत रामायण , गुरुग्रंथ साहिब आदि लोकप्रिय और पूज्यनीय है तथा अनमोल संग्रह की पंक्ति में है | ये ग्रन्थ सबसे बड़ा प्रमाण के रूप में यह सत्यापित करता है की भक्तियुगीन साहित्यकार मानव की व्यावहारिक कठिनायों की ही उपज थे और उनका आदर्श एक कल्याणकारी समाज था |यहीं सही मायने में यदि हम सुक्छ्मता की श्रेणी से मुलायंकन करे तो यह साक्षात प्रमाणीत होता है की भक्ति साहित्य उस गंगा के सामान है जिसमे कही कबीर की रहस्यवादिता है तो जायसी का प्रेमाख्यान और तुलसी का लोक्मंगल, सदाचार और पुरुषोतम राम के आदर्श के साथ-साथ सूरदास द्वारा कृष्णा की अदभुत बाल लीला का वात्सल्य रस प्रतिलाक्छित होता है |
जीवंत साहित्य वही है जो मानव के लिये कल्याणकारी ,मार्गदर्शक और उन्न्तिकारी अर्थात चतुर्दिक रूप से रोमांचकारी हो | ये तो हुए विषय-विस्तार की पूर्ति अब भाषा भी ऐसी है जो आम जनता को भी ग्राह्य हो सके और रूपक तथा बिम्ब भी ऐसा प्रस्तुत करे कि पाठक स्वयं को उस युग का महसूस करे |एक ऐसा साहित्य जिनके भावो में ऐसी अश्रुधारा जो क्रांति लेन वाला जोश रखे तो वहीं व्यथित तथा क्लांत मन को शांति प्रदान कर दे |
ये सभी गुण हिंदी साहित्य के किसी एक कल खंड में देखने को मिलता है तो वह शत-प्रतिशत भक्तिकाल खंड में ही देखने को मिलता है जिसे सर्वसम्मति प्रदान है स्वर्णयुग की | ऐसे विघटनकारी युग में जहां संत कवियों ने संघर्ष की विसंगतियों को भूलकर युग की पीङा को पी कर सांस्क्रतिक एवं सामाजिक विचारों का अलख जगा कर समाज में व्याप्त समस्त वाह्य-आडम्बरों और विसंगतियों का चक्रव्यूह भेदन किया ,सूफी कवियों ने प्रेम को व्यापक व विशेष अधर बना कर हिन्दू और मुस्लिम के बीच टूटती हुयी कडीयों को जोङने का प्रयास किया | सगुण धारा क्र कविजन साधु समाज की आत्मा बनकर आये |इन लोगो ने अपनी खोई हुई मर्यादा ,भुला हुआ गर्व तथा गरिमा एवं छिन्न-भिन्न होते हुए जीवन के शाश्वत मूल्यों ,मानदंडो ,धारणाओं की पुनर्स्थापना कर अपने काव्यों के हजारों पृष्ठों पर सार्थक विचारों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उसे देव बना दिया |मूलतः इस काल की उपलब्द्धियो ने ही इसे हिंदी साहित्य के स्वर्णयुग की उपाधि से सुशोभित किया है | अब भक्तिकाल को स्वर्णयुग बनाने वाले निम्नलिखित तथ्यों की ग्राह्यता को अनुभूति प्रदान करने वाले शीर्षकों का विवरण अधोलिखित है :
(१)      कवियों द्वारा चयनित विषयों की उत्कृष्टता : इस काल के सभी कवियों न अपने काव्य रूपी भाव के लिये जिस विषय का चुनाव किया वह उत्तम तथा लोक कल्याण की भावनावो से परिपूर्ण था, इसमे व्यक्ति जीवन और कर्म की सार्थकता को उभरा गया है जबकि आदिकाल और रीतिकाल में व्यक्ति-विशेष के गुणो को सराहा गया है | भक्ति साहित्य में भारतीय संस्कृति के आन्तरिक परिदृश्य की मुक्कमल अभिवयक्ति है | यह काल हमारी आध्यत्मिक परम्परा को एक नव-उन्मेष के साथ लोगों के मन में उतरने का कार्य किया है |
(२)      उच्च-कोटि और द्विग्दर्ष्क महाकव्य कृति का काल : भक्तिकाल महान कृति के साथ कृती-पुरुष का भी काल था कबीर, जायसी ,सूरदास तथा रामायण के कृती-पुरुष गोस्वामी-तुलसीदास इसी काल के ज्योति स्तंभकारों की पंक्ति में अग्रिम हैं जिनकी वाणी की लतासाधना के क्षेत्र में भक्ति का बीज अंकुरित हो पुष्पित और फलित हुआ था |किसी भी अन्य काल में इतने सारे युगप्रवर्तक नहीं हुए |
हिंदी-साहित्य में इन महान कवियों का स्थान निर्धारित करते समय यह कहा जाता है :
        ( १ )       सूर सूर तुलसी शशि, उडुगन केशवदास |
अब के कवि ख्नद्योव सम,जहँ-तहँ करत प्रकाश ||

        ( २ )      सार-सार सूरा कही तुलसी कही अनुठ |
                   बची खुची कबीरा कही ,और कही सब झूठ ||
(३)      अमर अर्थात सर्वकालिक कृतियों का युग :  भक्तिकाल के कवियों ने अगर काव्यों की रचना की हा वह मात्र उस समय या काल- सीमा तक के लिये ही नहीं वरन इन महाकाव्यों की और उन कृती पुरूषों की प्रासंगीकता आज भी काम नहीं है |यदि यह कहे तो कोई अत्योक्ति नहीं है कि ये कृतियाँ शाश्वतकालीन हैं ,कवीर की साखियाँ.जायसी का पदमावत, भक्त सूर का सूरसागर,  “तुलसी का रामचरितमानस, सभी अपने –अपने विषय-क्षेत्र में बेजोड़ हैं | तुलसी का रामचरित मानस तो साहित्य गगन –मंडल का एकाकी प्रभाकर है जो भक्तिकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दिलाने के लिये अकेला ही पर्याप्त है |
(४)      अनुभूति तथा अभिव्यक्ति दोनों के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम: मध्यकाल के महाकाव्य अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टि से बुलंदियों को छू रहे थे |अभिव्यक्ति की व्यापकता तो इतनी जीवंत और सरस है कि अकेला सूरसागर ही पर्याप्त है |
(५)      व्यापकता तथा सूक्ष्मता की दृष्टीकोण से बेमिसाल :प्रेमाख्यान की रुपरेखा में जायसी का तोड़ कही नहीं तो तुलसी कृत रामचरित मानस  की व्यापकता और लोकप्रियता तथा वात्सल्य वर्णन के लिये सूर का सूरसागर जो की सत्य और प्रेम के सीमित क्षेत्र में मिलता है अन्यत्र नहीं यदि यह कहा जाए की गागर में सागर सी व्यापकता ही भक्तिकाल को स्वर्णयुग कहलाने के लिये समीचीन है |
(६)      मर्यादा और सदाचार के दृष्टिकोण से अविस्मरणीय काल :वास्तव में भक्तियुग उच्च आदर्शो का काल था | संस्कारों और आदर्शो के लिए तो यह आज भी जीवित है :   
प्रातः काल उठि के रघुनाथा |
                          मातु-पिता गुरु नावही माथा ||
       जहाँ पर श्रंगार का परिपाक हुआ है वहां पर पूर्ण मर्यादा को बनाये रखने का प्रयत्न किया गया है
    (७)सामाजिकता तथा लोकप्रियता की उत्कृष्टता : भक्तिकाल के ज्ञानमार्गी एवं प्रेममार्गी         शाखाओ  के कवियों ने हिंदुओं तथा मुसलमानों में सदभावना उत्पन्न कर उन्हें एक दुसरे के निकट लाने का प्रयत्न किया था | कबीर ने दोनों जातियों के वह्याद्म्बरो का उपहास करके और जायसी तथा उस शाखा के अन्य कवियों ने हिन्दू प्रेम गाथाओ को अपना कर दोनों जातियों में एकता स्थापित करने का प्रयत्नं किया |
समन्वय वादिता के दृष्टिकोण से तुलसीदास जैसा समन्वयवादी कवि अन्य किसी काल में दृष्टिगोचर नहीं होता है |वास्तव में मानस समन्वय की विराट चेष्टा है |
(८)शैली की दृष्टि से : इस काल के कवियों ने प्रवंध और भाव दोनों ही शैलियों में काव्य की रचना की है | मानस की तुलना में पृथवीराज रासो , कामायनी ,प्रिय –प्रवास आदि नगण्य हो जाते हैं |यह एक ऐसा महाकाव्य है जो अतुलनीय और अद्वितीय है | मुक्तक की रचना करने का जो कौशल दिखाया गया है वह अन्यत्र दुर्लव्भ है | उसके पदों के बारे में कहा जाता है :        किंधौ सूर को सरलाग्यौ , किंधौ सूर की वीर |
किंधौ सूर को पद लग्यों, बेधौ  सकल शरीर ||
  (९) अलंकार और भाषा की दृष्टि से : भक्तिकाल की कविता की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि क्वविता  को अनायास अलंकृत करने का प्रयास नहीं किया गया है, फिर भी उपमा,रूपक,अतिशोयक्ति,अनुप्रास आदि स्वभावतः आ गये हैं और साथ ही सभी रसों का व्यापक संयोजन हुआ है | दोहा,चोपाई,सोरठा,छंद,सवैया और कविता पदों में यह कविता लिखी गयी हैं |
इस प्रकार हमारा हिन्दी साहित्य भावनाओं की परंपरागत धारा को अपनी आधारशिला के रूप में ग्रहण करते हुए सिद्धों,हठयोगियों और नाथपंथियों की यौगिक साधनाओं की जो एक रूढ़िगत परंपरा चली आ रही थी,कापालिकों का जो भीड़ इकठ्ठा था, वे अपने रहस्यों,दुराचारों और गुप्त साधनाओं तथा भैरवीचक्रों के दूषित वातावरण की अंतिम अवस्था को प्राप्त करे गयी जिसको रोकने और समाप्त करने के लिए भक्तिकाल के माध्यम से जिन महान संतो,सूफी और राम-क्रष्ण प्रेमी के अवतार कवि ने अपनी रचनाओ और उसमे समाहीत लोकभावना सदाचार, शिष्टता के साथ-साथ प्रक्रति की गूढता को प्रेम के माध्यम से शिक्षित करने का काम ही नहीं हुआ वरना उन महान कवियों प्रासंगिकता आज भी विद्यमान है | आज भी हम अपनी संस्कृति का आधार यदि ‘रामचरित मानस’ में पाते हैं तो ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ की पुज्यनीयता को स्वीकारने के साथ कबीर दास द्वारा साखी,रमैनी के दोहे आज भी उतने ही सत्य और खरे हैं जितने की उस काल में | वास्तव में उतनी खूबियों स्वयं में स्वर्णयुग रूपी संज्ञात्मकता के साथ -साथ अविस्मरणीय  साहित्यिक खानों के लिए महत्वपूर्ण हैं |
डॉ.श्यामसुंदर दास की ये पंक्तियाँ बहुत ही समीचीन प्रतीत होने के साथ-साथ सार्थक हैं :
जिस युग में कबीर,जायसी,तुलसी,सुर,मीरा,रहीम,रसखान आदि सुप्रसिद्ध कवियों की दिव्य वाणी, उनके अंतः करणों से निकल कर देश के कोने-कोने में फेलीथीं | इसे इतिहास में भक्तिकाल कहते हैं | निश्चय ही यह हिंदी का स्वर्णयुग था |   
संदर्भ-ग्रन्थ :-1.भक्तिकालीन साहित्य 2(एम.एच.डी.-6)इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय,मानविकी विद्यापीठ 
2.  हिंदी साहित्य का इतिहास ,आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,काशी-नगरी प्रचारिणी सभा संस्करण  संवत १९९७ वि. |
3.  राम स्वरूप चतुर्वेदी ,हिंदी संवेदना का इतिहास , लोकभारती प्रकाशक,चतुर्थ संस्करण १९९४ |


     

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