श्रद्धा क्या है ? और क्यूँ उमड़ती है हमारे मन में ,
क्या जब मन को छू लेती है किसी की कोई क्रिया ?
या मन उस क्रिया को देखकर पड़ जाये सोच में ,
फिर उस सोच का नतीजा बन कर उमड़ती है हमारी श्रद्धा |
श्रद्धा सदैव पूज्यनीय और आदरणीय होती है ,
यह सबके लिए न तो आती है और न ही बुलाई जा सकती है |
यह किसी कूटनीति और धूर्तता के नजदीक भी नहीं फटकती ,
यह तो पनपती है अन्तर्मन् की गहनता से सु क्रिया और सदभाव से मिलकर |
श्रद्धा के लिए जरुरी है किसी क्रिया के क्रियान्वयन का विस्तार ,
या कभी-कभी यह व्यक्तित्व को उभारती है तो कभीकभार कार्य |
श्रद्धा सदैव श्रद्धेयों के प्रति ही उमड़ती है यह एक त्रिकाल-सत्य है ,
यह सार्वजानिक तो होती है लेकिन कभी भी सर्वजन के प्रति नहीं उमड़ती है |
क्या जब मन को छू लेती है किसी की कोई क्रिया ?
या मन उस क्रिया को देखकर पड़ जाये सोच में ,
फिर उस सोच का नतीजा बन कर उमड़ती है हमारी श्रद्धा |
श्रद्धा सदैव पूज्यनीय और आदरणीय होती है ,
यह सबके लिए न तो आती है और न ही बुलाई जा सकती है |
यह किसी कूटनीति और धूर्तता के नजदीक भी नहीं फटकती ,
यह तो पनपती है अन्तर्मन् की गहनता से सु क्रिया और सदभाव से मिलकर |
श्रद्धा के लिए जरुरी है किसी क्रिया के क्रियान्वयन का विस्तार ,
या कभी-कभी यह व्यक्तित्व को उभारती है तो कभीकभार कार्य |
श्रद्धा सदैव श्रद्धेयों के प्रति ही उमड़ती है यह एक त्रिकाल-सत्य है ,
यह सार्वजानिक तो होती है लेकिन कभी भी सर्वजन के प्रति नहीं उमड़ती है |
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