बुधवार, 6 अगस्त 2014

हिंदी साहित्य का प्रारम्भिक काल

यह साहित्याविदों में सर्वविदित है कि ‘आदिकाल’ हिंदी साहित्य का एक कालखंड है जिसकी समय सीमा व नामकरण विभिन्न साहित्य इतिहासविदों द्वारा इस प्रकार हैं : आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नामांकण व सीमांकन की सीमांए है :
आदिकाल (वीरगाथा काल ) : संवत १०५० से १३७५
पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल) : १३७५ से १७००
उत्तरमध्यकाल (रीतिकाल) : १७०० से १९००
आधुनिक काल (गद्यकाल) : १९०० से अब तक
आचार्य रामचंद्र शुक्ल  ने सर्वप्रथम हिन्दी इतिहास की गूढता को प्रतिरुपित तथा उसे विवेचित करने के साथ-साथ प्रथम खंड को वीरगाथा काल से नामांकित किया | उन्होंने इसके लिए जिन बारह ग्रंथो का आधार बनाया उसके लिए वे स्वयं एक झिझक से ग्रस्त हैं तभी तो उन्होंने स्वयं लिखा हैं दूसरी बात इस आदिकाल के संबंध में ध्यान देने की यह है की इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है, उसमे कुछ तो असंदिग्ध है और संदिग्ध है |
इस प्रकार यह स्पष्ट है की उन्होंने काल की दृष्टि से प्रथम काल आदिकाल कहा तो प्रवृति के आधार पर इसे वीरगाथा काल की संज्ञा दी|
आदिकाल की लोकप्रियता का कारण इसके अर्थ में निहित है क्योंकि आदि का अर्थ होता हैं –शुरू अपभ्रंस और संस्कृत,आदिकाल में हिन्दी साहित्य के समानान्तर ही प्रख्यात थी जिसमे संस्कृत की अपेक्षा अपभ्रंश-साहित्य भाषा की सन्निध्यता अधिक होने के कारण पृष्ठभूमि का काम कर रहा था साहित्यिक प्राकृत का देश भाषाओं के साथ संपर्क होने के कारण ही अपभ्रंश अवस्था की शुरुवात हुयी | उसकी प्रमाणिकता आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मत से स्पष्ट है :जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गयी तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझाना चाहिए | अपभ्रंश नाम उसी से चला |
इस प्रकार देशभाषा से अलग हो कर अपभ्रंश, साहित्य की  अभिव्यक्ति की भाषा हो गयी और जैन कवियों और आचार्यो ने रचना की थी तथा हेमचंद्र ने इसे ग्राभ्य भाषा कहा जिसमें बौद्ध सिद्धों के दोहे और रासक जैसे काव्य उसी (ग्राम्यभाषा) के उदाहरण हैं |उसे भाषा का विकिसित व परिमार्जित तथा परीष्कृत रूप हिन्दी है जिसे हम सिद्धों और नाथों के साहित्य में देख सकते हैं | स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं -अपभ्रंश या प्राकृतभाषा   हिन्दी के पदों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौधों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताव्दी के अंतिम चरण में लगता है | हिंदी को अमीरखुसरो के साहित्य में देख सकते हैं | इसके अंतर्गत् बौद्धों एवं सिद्धों के साहित्य और रासो साहित्य में हिंदी का विकसित रूप दिखता है|
इस प्रकार आदिकाल का साहित्य अधिकांशतया वीररसात्मक काव्यों का युग है, जिसका परिणाम रासो ग्रन्थ’ हैं | इतिहास गवाह है कि हिंदी साहित्य आदिकाल के समय उत्तर-भारत की दशा अत्यंत दयनीय हो गयी थी जिससे केन्द्रीय सत्ता का पतन हो चुका था जिसके कारण राजनीतिक दुरावस्था ,अस्तव्यस्ता और गृहकलह का युग था |एक तरफ विदेशी आक्रमण की निरंतर चलने वाली भीषण आंधीयाँ थीं;तो दूसरी ओर राजावों एवं सामंतो की आपसी फूट तथा शत्रुता देश को जर्जर कर रही थीं | गुप्त-युग और हर्ष-युग की केन्द्रीय सत्ता के ह्रास के बाद संस्कृत भाषा की केन्द्रीयता भी समाप्ती की तरफ अग्रसित थीं तो चारण कवियों द्वारा अनुभव की जीवंतता जो की उन्हें युद्ध्छेत्र के तहत प्राप्त होती थी |रासो साहित्य इसका सर्वोत्तम परिणाम है |
ये तो है राजनितिक असर ,इसके अतिरिक्त समाज भी इस राजनितिक उथल-पुथल की ग्रस्तता का शिकार बना जिसक जीवंत उदाहरण सिद्ध ,नाथ और जैन साहित्य में मिलता है जिसमे सामाजिक कर्मकाण्ड के प्रति आक्रोशित- तांडव नृत्य इनके साहित्य की अभिव्यक्ति है |निर्धनता ,दुर्भिछ निरंतर होने वाले युद्ध और महामारियों ने सामान्य जनता को संकट में डाल दिया था |समाज की विषम परिश्त्तिथ्याँ जनता के रूचि के अनुकूल ही उस समय के साहित्य में प्रतिबिम्बित होने लगीं | साहित्य और राजनीति,साहित्य और समाज के अंतर्संबंधोंपरांत उत्पन्न रचनावो की अभिव्यक्ति में आर्थिक और धार्मिक मसलों को समाहित करेगे |
समाज उत्पादक और उपभोक्ता में विभक्त था अतः कवी और चारण उच्च वर्गों की मनोनुकूलता के लिये नखशिख वर्णन, षडरितु वर्णन, विरह और सौन्दर्य वर्णन की प्रचुरता तो है लेकिन क्रिसक को साहित्य में कोई स्थान नहीं मिला | समाज में हिन्दू दर्शन को पुनः प्रतिपादित करने वाले शांकर ने बौद्धिक स्तर पर जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म सबसे भयंकर चुनौती दी |शांकर ने भक्ति की अपेक्षा ज्ञान के महत्व को प्रतिपादित किया | लेकिन उनका ज्ञानवाद जनसामान्य में प्रसारित नहीं हो सका | पश्चिमी भारत में व्यापारियों के वीच जैन-धर्म प्रचलित और लोकप्रिय था | लेकिन बौद्ध-धर्म का विकाश अवरुद्द हो गया था जब बख्तिय्यर खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण किया तब बौद्ध-धर्म लुप्त प्रायः हो गया था | इस प्रकार आदिकाल का साहित्य सिद्ध-साहित्य ,नाथ-साहित्य,जैन-साहित्य, ये सारे साहित्य धर्म की व्याख्या पर है तो रासो-काव्य,लौकिक-साहित्य ,गद्द-रचनायें वीरता पर आधारित वय्ख्यायों को समाहित किये हुए हैं |
हालांकि आचार्य शुक्ल ने सिद्धों की कविता को हिंदी के प्रारंभिक रूप का पता यदि उन्हें सिद्धों की रचनावो में मिलता है और उनके द्वारा हिंदी साहित्य में स्थान भी नहीं देना विरोधाभाष को दर्शाता है |आचार्य शुक्ल धार्मिक साहित्य श्रेणी के तहत जैन ग्रंथो को हिंदी से बाहर रखते हैं |आदिकाल की एक विशेष साहित्य प्रवृत्ति रासो-साहित्य’ है जिसमे वीरगाथात्म्क काव्य का बोध होता है जिसके कृतिकार हैं भट्ट और चारण |लौकिक-साहित्य और कुछ गद्य साहित्य भी आदिकाल की देन है तो साथ ही नाथों की वाणी और अमीरखुसरों का लोकरंजन प्रधान साहित्य भी |वास्तव में आदिकालीन साहित्य भाषा की प्रवृत्तिगत्त विविधता से भरे होने के बावजूद प्रश्श्त्तिपरक साहित्य का स्थायी भाव युद्ध और प्रेम ही था |इस प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ला ने आदिकाल की सीमा सन् ९९३ ई० से प्रारंभ मानकर यथार्थ के अधिक निकट आते हैं | उन्होंने अपनी रचनावो के तहत भी उसे चरितार्थ करने में सफल समालोचक की भाँति पाठको को संप्रेषित किया है |उन्होंने अपभ्रंश युग को हिंदी साहित्य का आदिकाल माना है जो की वर्तमान अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में असंगत है | पूर्ववर्ती इतिहासकारों ने प्रायः शुक्ल जी का अनुगमन किया |
इसप्रकार आदियुगीन साहित्य दो धाराओं में विभक्त हुआ जो कि वीरता की गाथाओं से ओतप्रोत थी तो दूसरी धर्म से |भाटो ने राजाओं की प्रशंसा की वह वीरगाथात्मक साहित्य कहलाया | जैनाचार्यो ने ,सिद्धों ,नाथों का लिखा हुवा साहित्य धार्मिक साहित्य कहलाया |
अतः आचार्य शुक्ल ने इसके लिये बारह पुस्तकों को ही जिसमे विजयपाल रासो ,हम्मीर रासो,कीर्तिलता ,कीर्तिपताका ,और देशभाषा काव्य की आठ पुस्तके खुमान रासो,बीसलदेव रासो,पृथवीराज-रासो,जयमयंक-रासो,जयचन्द्रिका,परमालरासो,{आल्हा का मूल रूप}खुसरों की पहेलिया और विद्यापति पदावली|
इस प्रकार शुक्ल जी के नामकरण को अमान्य कहने के बावजूद भी ग्रहण किया गया है लकिन उनमे से किसी भी इतिहास लेखक ने समुचित भावव्यन्जक और कलाविचार को प्रतिविम्वित करने वाला दूसरा नाम भी प्रदान नहीं किया है |
आदिकाल साहित्य के विशिष्टताओं सारांश –
काव्य का राज्याश्रयण –डा.नागेन्द्र प्रभृति विद्वान् आलोचकों ने ‘राष्ट्रीय काव्य ‘का मूल उस आदिकाल के हिंदी साहित्य में देखा है|यह तथाकथित ‘राष्ट्रीय काव्य ‘ राज्याश्रयो में ही चारण-भाटों द्वारा लिखा गया | इसका मूल संबंध हिन्दू राजाओं के गौरव गान से है|
इस युग की प्रवृति को रेखांकित करते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा है :यूरोप में वीरगाथाओं का प्रसंग ‘युद्ध और प्रेम’ रहा वैसे ही यहाँ भी था ,किसी राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्छ्योंको पराजित कर उस कन्या को हर लाना वीरों के लिये गौरव और अभिमान का काम मन जाता था |इस प्रकार इन काव्यों में श्रंगार भी थोड़ा मिश्रण रहता था और गौण रूप में प्रधान रस वीर ही रहता था |
आदिकालीन साहित्य का धर्माश्रयण – यह  विदित है की आदिकाल में धार्मिक साहित्य में एक विशिस्ट प्रवृत्ति लक्छ्य योग्य है यह प्रवृत्ति है लीलागान की | विद्यापति की ‘पदावली’ पर इस लीलागान की ललित परम्परा का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्छित किया जा सकता है | इसी लीलागानात्मक परम्परा का परवर्ती विकास भक्तिकाल में परिलक्छित पाया गया |
इस युग के साहित्य की धार्मिक प्रवृत्ति की तीसरी दिशा सूफी परम्परावों की अग्रसर होती है | इस समय तक ‘कश्फूल महमूद’ की कृति आ चुकी थी | जायसी आदि कवियों में जिन प्रेमाख्यानक काव्यों की वेगवती धारा उमणी इसका वीजरोपण आदिकाल में ही किया जा चुका था |
काव्य का लोकाश्रयण -  किसी भी युग का लोकसाहित्य लिखित रूप में नहीं मिलता | इस प्रकार का साहित्य एक ले में कंठ से कंठ के माध्यम से सम्प्रेषित होते हुए युग युग तक के के लिये अमरता का उद्दघोष करते रहते हैं यह संभव है की आदिकाल में लोक की चेतना अभिव्यंजित करने वाले कवियों को भी राज्याश्रय प्राप्त रहा होगा ,किन्तु उनकी मूल चेतना अश्र्यदाताओं की अभिस्तुती नहीं ,बल्कि लोकजीवन से अभिन्नता की उत्कट उत्कंठा  समाहित होगी | इस आधार पर यह कल्पना करना संगत प्रतीत होता है कि प्रयोजनमूलक साहित्य की नीव भी इसी युग में पड़ चुकी थी | आदिकाल में जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा’ इसी प्रकार का साहित्य है | यह काव्य आज भी जनकंठ का हार बना हुआ है |
अंततोगत्वा हम आदिकालीन साहित्य की विशेषताओं को इस तरह से भी ग्राह्य कर सकते है की:- आश्रयदाता अधिपतियो का अतिरंजित वर्णन करना कवियों और साहित्यकारों की प्रथम वरीयता थी | दूसरी विशेषताओं को इस प्रकार समाकलित किया जा सकता है –की रणभूमि के युद्धों का सजीव चित्रण करना साहित्य का प्रथम उद्देश्य था |युद्ध की विकट भंगिमा कर्कश पदावली में शब्दांकित है,इसमे अवतरित वीरता के हर्ष से दीप्त ओजस्वी कविताएँ भूषण को छोङ कर कभी शायद ही लिखी गयी | इस युग की तीसरी विशेषता वीर रस के साथ-साथ श्रंगार रस का उन्मुक्त, सरस और ह्र्दग्राही चित्रण है | वीर्गाथात्मक रचनाकारों ने इतिहास की अपेक्छा कल्पना को ज्यादा महत्व दीया है|
साहित्य का विकास-क्रम वस्तुतः कार्य –कारण-श्रिंखला का परिणाम होता है | वर्तमान का स्वरूप विगत की संभावनाओं से निर्दिष्ट होता है ,दूसरी ओर ,वही वर्तमान अपने भीतर अनागत के विकास के बीज छिपाए होता है , जिसे केवल किसी क्रान्तिदर्शी सर्जक की प्रतिक्छा रहती है |
अपने इतिहास में इस युग को वीरगाथा काल नाम देने में शुक्ल जी द्वारा ‘रासो-ग्रंथो ‘ के योगदान में अपनी स्वीकृति दी है | कितना सटीक और सार्थक दृष्टीकोण संप्रेषित किया है हमारे विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने :
अपने रक्त में राजस्थान ने जिस साहित्य का निर्माण किया है वह अद्वितीय है |उसका कारण भी है | राजपूत कवियों ने जीवन की कठोर वास्तविकताओं का स्वयं सामना करते हुए युद्ध के नगाङो की ध्वनि के साथ स्वाभाविक गान किया है | उन्होंने अपने साक्षात शिव के तांडव की तरह प्रकृति का नृत्य देखा था | क्या आज कोइ अपनी कल्पना द्वारा इस कोटि के काव्य की रचना कर सकता है ,राजस्थानी भाषा के प्रयेक दोहे में जो वीरत्व की भावना और उमंग है वह राजस्थान की मौलिक निधि है और समस्त भारत के गौरव का विषय है |
चेतना से ही मन जा सकता है | इस धरा से संबन्ध रचनाकार एक खास वर्ग के सामाजिक वर्चस्व के खिलाफ खङे हुए थे | जिस छंद और लय को सिद्धों ,नाथों और जैनों ने संघर्ष से प्राप्त किया था ,वह हिंदी भाषा में सहज ही उपलब्ध हो सकी | हर युग का अपना अपना छंद ,लय और विधान होता है उसे समकालीन जीवन और समाज रचता है | आदिकाल के कृतिकारों ने अपने अनुभव को हिंदी के लिये संभव बनाया यह सर्वसम्मत से सिरोधार्य है | दोहा ,छंद ,की खोज हो या चरित काव्य की परम्परा का विकास ने जहां परवर्ती काल के लिये सशक्त नीव डाला वहीं आदिकाल को वीररससिक्त से समाहित काल की पंक्ति में स्थापित किया | 
संदर्भ :१.हिंदी  साहित्य का इतिहास , आचार्य रामचन्द्र शुक्ल , कशी नगरी प्रचारिणी सभा ,संस्करण संवत १९९७ वि.


  •                       2    एम.एच.डी -६ हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास ,हिंदी साहित्य के इतिहास की भूमिका और आदिकाल ,इग्न्यु         दिल्ली
  •        ३. हिंदी साहित्य का आदिकाल -डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी 



  • 1 टिप्पणी: